प्रेरक कहानियां - पार्ट 122
अपनी कमाई- सदा काम आई
राजा जनमेजय प्रति माह कुछ समय राज्य में यह देखने के लिए भ्रमण किया करते थे कि उनकी प्रजा को किसी प्रकार कष्ट तो नहीं है। विकास की जो योजनाएँ क्रियान्वित की जाती हैं, उनका परिपालन होता है या नहीं? उनका लाभ नागरिकों को मिलता है या नहीं?
वे एक गाँव से गुजर रहे थे। छद्म वेश में थे, इसलिए कोई पहचान नहीं सका। एक जगह, लड़के खेल, खेल रहे थे। एक लड़का उनमें शासक बनकर बैठा था, सभासद बने लड़के सामने बैठे थे। शासक का अभिनय करने वाला लड़का, जिसका नाम कुलेश था, खड़ा सभासदों को व्याख्यान दे रहा था- ‘‘सभासदों! जिस राज्य के कर्मचारीगण वैभव- विलास में डूबे रहते हैं, उसका राजा कितना ही नेक और प्रजावत्सल क्यों न हो, उस राज्य की प्रजा सुखी नहीं रहती। मैं चाहता हूँ, जो भूल जनमेजय के राज्याधिकारी कर रहे हैं, वह आप लोग न करें, ताकि मेरी प्रजा असन्तुष्ट न हो। तुम सबको वैभव- विलास का जीवन छोड़कर जीना चाहिए। जो ऐसा नहीं कर सकता वह अभी शासन सेवा से अलग हो जाय।’’
सभासद तो अलग न हुए पर बालक की यह प्रतिभा उसे ही वहाँ से अवश्य खींच ले गई। जनमेजय उससे बहुत प्रभावित हुए और उसे ले जाकर महामन्त्री बना दिया। कुलेश युवक था तो भी वह बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से राज्य कार्यो में सहयोग देने लगा। सामान्य प्रजा से उठकर जब वह महामन्त्री बनने चला था, तब उसके पास एक कुदाली, लाठी और एक उतरीय वस्त्र अँगोछे के अतिरिक्त कुछ नहीं था, वह इन्हें अपने साथ ही लेता गया।
उसके प्रधानमंत्रीत्व काल में अन्य मन्त्रियों सामन्तों एवं राज्य कर्मचारियों के लिए आचार- संहिता बनाई गई, जिसके अनुसार प्रत्येक पदाधिकारी को दस घण्टे अनिवार्य रूप से कार्य करना पड़ता था। अतिरिक्त आय के स्रोत बन्द कर दिये गये, इससे बचा बहुत- सा धन प्रजा की भलाई मे लगने लगा। सारी प्रजा में खुशहाली छा गई। जनमेजय कुलेश के आदर्श व प्रबन्ध से बड़े प्रसन्न हुए।
लेकिन शेष सभासद, जिनकी आय व विलासितापूर्ण जीवन को रोक लगी थी, महामन्त्री कुलेश से जल उठे और उसे अपदस्थ करने का षड्यन्त्र रचने लगे।
उन्हें किसी तरह पता चल गया कि महामन्त्री के निवास स्थान पर एक कक्ष ऐसा भी है, जहाँ वह किसी भी व्यक्ति को जाने नहीं देता, जब वह दिन भर के काम से लौटता है, तब स्वयं ही कुछ देर उसमें विश्राम करता है।
सभासदों ने इस रहस्य को लेकर ही जनमेजय के कान भर दिए कि कुलेश ने बहुत- सी अवैध सम्पत्ति एकत्रित कर ली है। महाराज उनके कहने में आ गये अतएव जाँच का निश्चय कर एक दिन वे स्वयं सैनिकों सहित कुलेश के निवास पर जा पहुँचे। सब ओर घूमकर देखा पर महाराज को सम्पत्ति के नाम पर वहाँ कुछ भी तो नहीं दिखा, तभी उनकी दृष्टि उस कमरे में गई, वे समझे कुलेश निश्चय ही अपनी कमाई इसमें रखता है।
महाराज ने पूछा- ‘‘कुलेश! तुम इस कक्ष में एकान्त में क्या किया करते हो?’’ इनकी पूजा महाराज! उसने उत्तर दिया। कुदाली मुझे सदैव परिश्रम के प्रेरणा देती है और लाठी स्वजनों की सुरक्षा की उत्तरीय वस्त्र की पूजा मैं इसलिए करता हूँ कि घर हो या बाहर यही बिछौना मेरे लिए पर्याप्त है। यह कहकर कुलेश ने तीनों वस्तुएँ उठा लीं और फिर उसी ग्रामीण जीवन में चला गया।
महाराज जनमेजय को सभासदों के षड्यन्त्र का दुःख अब भी बना हुआ है, वह तब दूर हो जब कुलेश जैसे राज्य कर्मचारी देश में उत्पन्न हों।